Rizwan Ahmed 14-Oct-2020
बेटी तेरी हो या मेरी ये बड़ी मासूम और प्यारी होती हैं
माँ बाप की आँखों का तारा और दुलारी होती हैं
बेटी फातिमा हो मरियम हो या राधा दुर्गा
कोई ज़ात नहीं इनकी ये तो बस बेटियां होती हैं
थक कर काम से घर लोटे जब शाम को बाप
हाथ में पानी इनके और इसके चेहरे पे मुस्कान होती है
नंन्हे कोमल हाथों से जब ये प्यार से छू लेती है
बड़े बड़े रंज-ओ-ग़म पिता के ये उड़न छू कर देती है
जैसे जैसे ये बड़ी होती है घर का आँगन महकने लगता है
घर का सामान अपनी जगह करीने से लगने लगता है
तिनका भी ना नज़र आये घर को ये ऐसे चमकाती हैं
माँ के हर काम को ये अपने नाम कर लेतीं हैं
ये जवान होती हैं और घर की इज़्ज़त बन जाती हैं
कोई गलती ना हो मुझसे रात दिन इन्हे ये फ़िक्र खाती है
ये जानती हैं तेरे एक एक क़दम पे है ज़माने की नज़र
गैर तो गैर हैं इन्हे तो अपनों का भी है बहुत डर
कोई ताना ना मिले ज़माने का मेरे माँ बाप को
रात दिन सूखती बस यही रात दिन सोचती है
वक़्त आने लगा धीरे धीरे इनके डोली में बैठने का
बाप की भूख उजड़ी माँ भी ना ठीक से खाती हैं
फिर अचानक से कुछ भेड़ियों की नज़र इनपे पड़ी
वो तो कोने में मासूम बकरी की मानिंद खड़ीं
रोये गिड़गिड़ाए मांगे भीख रहम की ज़ालिम शैतानों से
देखे अपनी इज़्ज़त को बार बार वो जो तार तार पड़ी
काश इनको नोचने से पहले तुमने अपनी बेटियों का सोचा होता
ज़ालिमों काश तुम्हे इनमें साया अपनी बेटी का नज़र आया होता
होता अहसास तुमको इनके दर्द और इनके माँ बाप की इज़्ज़त का
ज़िंदा रह गई तो ज़िंदा लाश मर गई तो घर में इनके कई मौत होती हैं
वो जो नेता वोट मांगते वक़्त सब के चरण छूते हैं
ऐसे वक़्तों में नज़र ना आवें काहें ना उनकी आँख रोती है
हुवा बहुत रहम बेटियों के गुनहगारों पे अब
लाओ शरीअत का कानून ना करों इन पे रहम
सजा-ए-मौत इन्हे दो सरे-आम सामने सबके
एक को सजा हुई तो कइयों की आँखे खुलती हैं,
दोस्तों ये कहना तो बहुत मुश्किल है बेटियों की इज़्ज़त से खलने वाले इन लोगों की मासिकता किया होती है कैसा ज़ालिम कलेजा इन लोगों के सीनों में होता है, लेकिन इस बात में कोई दो राय नहीं देश के अंदर जो कानून है उसकी नरमी और सरकार की तरफ से खुली छूट इन लोगों का हौसला बढाती है, मेरी कविता कैसी लगी नीचे कमेंट बॉक्स में कमेंट करके ज़रूर बताएं
आपका दोस्त रिज़वान अहमद। .....
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