Sultan Abdul Hameed Part 1

सफीर साहब मै बादशाह हूँ बलकान का इराक का शाम लेबनान का मै ख़लीफ़तुल इस्लाम अब्दुल हमीद खान हूँ , अगर तुमने इस ड्रामे को ना रोका तो मै तुम्हारी दुनिया बर्बाद कर दूंगा ये कहते हुए सुल्तान इस्तेहार वाला अख़बार सफीर की तरफ उछालते हुवे दरबार से बाहर निकल गए,,

Rizwan Ahmed 01-Oct-2020


मै आपका दोस्त रिज़वान अहमद इस आर्टिकल में मै आपको सुल्तान अब्दुल हमीद की मुकम्मल  दास्तान सुनाने जा रहा हूँ, अगर आपको ये दास्तान पसंद आये तो इसे अपने दोस्तों के साथ शेयर ज़रूर करें,


ये खिलाफते उस्मानिया के आखरी सुल्तान अब्दुल हमीद का ज़माना था, एक दिन सुल्तान अपने दरबार में मौजूद  थे, तब हुकूमत के एक वज़ीर ने आकर एक खबर सुनाई जिसको सुनते ही सुल्तान के चेहरे का रंग गुस्से से लाल हो गया और निहायत जलाल में आकर खड़े हो गए, हुकूमत के वज़ीर के हाथ में एक फ़्रांसिसी अख़बार था, उस अख़बार में लिखा था के, हुज़ूर सल्लाहु अलैहि वसल्लम के ऊपर एक गुस्ताखाना ड्रामा का ऐलान किया गया है और नआजुबिल्लाह उस ड्रामे में एक सख्स हुज़ूर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम का किरदार भी अदा करने वाला है, ये खबर पढ़कर निहायत जलाल और गुस्से की हालत में सुल्तान का जिस्म काँप रहा था चेहरा सुर्ख हो गया था, सुल्तान वहां मौजूद अपने वज़ीरों से कहा इस ड्रामे में हमारे हुज़ूर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की शान में गुस्ताखियां हैं, अगर वो मेरे बारे में बकवास करते तो मुझे कोई ग़म ना होता, लेकिन अगर वो मेरे दीन और मेरे आक़ा सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की शान में गुस्ताखी करेंगे तो चाहे मेरी गर्दन कट जाये चाहे मेरे जिस्म के टुकड़े टुकड़े हो जाएँ मै तलवार उठाऊंगा और अपनी जान आक़ा सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम पे क़ुर्बान कर दूंगा, 


ताकि कल क़यामत के दिन हशर के मैदान हुज़ूर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के सामने कोई शर्मिंदगी ना हो, मै हुज़ूर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की शान में गुस्ताखी करने वालों को बर्बाद कर दूंगा, 

और तुरंत फ़्रांसिसी सफीर (अम्बेस्डर) को अपने सामने बुलवाया, थोड़ी देर बाद फ़्रांसिसी सफीर उनके सामने हाज़िर था,


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सुल्तान अपने तख़्त पे बैठने के बजाये गुस्से की ज़ियादती की वजह से उसके सामने खड़े थे सुल्तान की हालत देख कर सफीर को अंदाज़ा हो रहा था उसे बेवजह तलब नहीं किया गया उसके माथे पर पसीना आगया था जिस्म पर लरजा तारी था और उसकी टाँगे सुल्तान के रुआब से कांप रही थी , सुल्तान ने आँखों में आँखे डाल कर निहायत रोबीले अंदाज़ में सफीर से कहा, सफीर साहब मै बादशाह हूँ बलकान का इराक का शाम लेबनान का मै ख़लीफ़तुल इस्लाम अब्दुल हमीद खान हूँ , अगर तुमने इस ड्रामे को ना रोका तो मै तुम्हारी दुनिया बर्बाद कर दूंगा ये कहते हुए सुल्तान इस्तेहार वाला अख़बार सफीर की तरफ उछालते हुवे दरबार से बाहर निकल गए,

फ़्रांसिसी सफीर सिफारतखाने (एम्बेसी) पहुंचा और बहुत तेज़ रफ़्तार से एक पैगाम अपनी हुकूमत को भेज दिया के अगर यूरोप को अपनी आँखों से जलता हुवा नहीं देखना चाहते और यूरोप की बिल्डिंगो पर इस्लामी झंडे नहीं लहराते हुवे देखना चाहते हो तो फ़ौरन इस गुस्ताखाना ड्रामे को रोकना होगा,

उस्मानी लश्कर हुक्म के इन्तिज़ार में खड़े हैं उनके जहाज़ बंदरगाह पर एक इशारे का इंतज़ार कर रहे हैं, प्यादे फौज और तोंपे छावनियों से निकल चुके हैं,



अगले दिन सुल्तान अपने कमरे में मौजूद थे और जंगी तैयारियों को जायज़ा ले रहे थे, के अचानक एक वज़ीर हांफता हुवा अचानक कमरे में बिना इजाज़त के ही दाखिल हो गया, और बड़े जोशीले अंदाज़ में कहने लगा के हुज़ूर फ्रांसीसियों ने सिर्फ उस ड्रामे को ही नहीं रोका बल्कि उस थिएटर को भी हमेशा के लिए बंद कर दिया है जिसमे नबी करीम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की शान में गुस्ताखी का इरादा किया था, सुल्तान की आँखें वज़ीर की बात सुनते सुनते ही नम हो चुकी थीं और सुल्तान की ज़बान से जज़्बात में सिर्फ अल्हम्दुलिल्लाह ही निकल सका,उसने सुल्तान को बताया के पूरे आलम-ए इस्लाम से आपके लिए शुक्रिया के पैगाम आरहे हैं और मुसलमानो के मुँह से आपके लिए खैर-ओ आफ़ियत की दुआ निकल रही है, 

सुल्तान की गर्दन अल्लाह के हुज़ूर में झुकी हुई थी और आँखों से आंसू जारी थे, सुल्तान ने गर्दन ऊपर उठाई और वज़ीर से कहा के ऐ पाशा मुझे ये इज़्ज़त सिर्फ इसी लिए मिली है के मै इस दीन का अदना सा खादिम हूँ मुझे किसी बड़े लक़ब की ज़रूरत नहीं है, 

सुल्तान अब्दुल हमीद सानी" के इश्क़-ए-रसूल सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम का ये अकेला वाकिया नहीं है, यूं तो सभी उस्मानी सुल्तान नबी करीम सल्लल्लाहु वसल्लम से अकीदत रखते थे मगर सुल्तान अब्दुल हमीद एक ऐसे आशिक ए रसूल सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम थे जिनकी मिसाल मिलना बहुत मुश्किल है, 


सुल्तान "अब्दुल हमीद सानी" ख़िलाफ़ते उस्मानिया के 34 वे और आखरी खलीफा थे, वो 21 सितम्बर 1842 में तुर्की के इस्ताम्बुल में पैदा हुवे और उन्होंने 21 अगस्त 1876 में ख़िलाफ़ते उस्मानिया की बागडोर संभाली, आपकी तख़्तनशीनी की रस्म बाकी उस्मानी खलीफाओं की तरह हज़रत अबू अय्यूब अंसारी के मज़ार पर हुई जहाँ आपको तारीखी तलवार पेश की गई , कहा जाता है के खुलफाए बनु उस्मान में अगर सुल्तान मोहम्मद फातेह के बाद अगर कोई खलीफा तक़वा और दीनदारी के आला मयार पर पूरा उतरता है तो वो सुल्तान अब्दुल हमीद हैं,

सुल्तान हाफ़िज़-ए-क़ुरआन ऊंचे किरदार और बहुत सारी ज़बानो के माहिर थे और हिकमत-ओ-दानिशमंदी" में भी अपनी मिसाल आप थे, अपनी ज़ाती आमदनी से हब्शा के दारुल हुकूमत अदीस अबाबा और चीन के एक दारुल हुकूमत में अरबी और इस्लाम के तौर तरीके सिखाने के मदारिस क़ायम किये, और उन पर होने वाले तमाम खर्चे अपनी जेब से अदा करते थे, वो आलिमों के कदरदान थे खासतौर पर मक्काः और मदीना के आलिमों का वो बहुत इकराम करते थे,


नबी-ए-करीम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम और बुज़ुर्गाने दीन से मोहब्बत की जो मिसालें सुल्तान अब्दुल हमीद ने दीं हैं वो कहीं और नहीं मिल सकतीं, खासतौर से हिजाज रेलवे लाइन, हिजाज़ रेलवे लाइन की शुरुवात अपने तख्तनशीनी की 25वी सालगिरह पर की थी ,और 8 साल बाद 1 सितम्बर- 1908 तक दमिश्क से मदीना मुनव्वरा तक 1320 किलोमीटर लम्बी लाइन मुकम्मल हुई और पहली ट्रैन उस्मानी सल्तनत के उलमाओं को लेकर दमिश्क रवाना हुई, हिजाज रेलवे सल्तनत उस्मानिया के लिए एक बहुत बड़ी कामियाबी थी, वो सफर जो दो दो महीने में पूरा होता था अब 55 घंटे में पूरा हो जाता था, और सफर के खर्चे दस गुना तक कम थे, 




पूरा मंसूबा दमिश्क से लेकर मक्काः मुकर्रमा तक लाइन बिछाने का था मगर एक बड़ी जंग की वजह से लाइन सिर्फ मदीना मुनव्वरा तक महदूद रह गई थी,  दिलचस्प बात ये है के इस लाइन के कुछ हिस्से और सौ साल पुराने इंजिन और कुछ डब्बे आज भी मौजूद हैं,

इसी दौर की बात बात है जब लगातार जंगों की वजह से तुर्की का बाल बाल कर्ज़े में जकड़ा हुवा था,


यूरोप के यहूदियों ने दुनिया भर के यहूदियों से रकम जमा की थी, ताकि फिलस्तीन में यहूदियों के रहने के लिए जगह खरीदी जा सके.


रकम जमा हो जाने के बाद एक वफद फ़्रांस के सफीर की सरबराही में सुल्तान के सामने पेश हुवा और गुज़ारिश के उन्हें इस रक़म के बदले में यहूदियों के रहने के लिए फिलिस्तीन में जगह दे दी जाए, ताकि वो अपनी इबादतगाह बना सकें, 


सुल्तान चाहते तो परेशानी के इस दौर में इस रक़म को क़ुबूल कर लेते मगर सुल्तान ने इस हक़ीर  रकम को ठुकराते हुवे तारीखी अल्फ़ाज़ कहे, के खलीफा ज़मीनो का मालिक नहीं सिर्फ देखभाल करने वाला होता हैं, मुझे ज़मीन बेचने का कोई इख़्तियार नहीं और नहीं मेरा ईमान मुझे ये गवारा करने देता है के मै इस सौदे को क़ुबूल करूँ,

सुल्तान के इंकार करने के बाद ब्रिटैन और फ़्रांस से ताल्लुक ख़राब होते चले गए मगर उन्होंने कतई गवारा ना किया के फलीस्तीन की एक इंच ज़मीन भी यहूदियों के पास चली जाये चाहे सारी दुनिया ही से मुखालफत क्यों ना हो जाये, 

1893 बरतानवी पार्लिमेंट के यहूदी तंजीम केअध्यक्ष लॉर्ड सैम्यूल ने इस्तंबूल जाकर सुल्तान से मुलाकात की उसने सुल्तान को और ज्यादा रकम का ऑफर दिया और गुज़ारिश की के शाम के उत्तर की तरफ और उर्दन के पूर्व की तरफ यहूदियों को बस्तियां बसाने के लिए जगह दी जाये,


सुल्तान ने फिर से अपना वही जवाब दोहराया के फलीस्तीन के अलावा वो लोग सल्तनत ए उस्मानिया के जिससे हिस्से में चाहे यहूदी बस सकते हैं और उन्हें हर हर तरह की सुवधाएं दी जाएँगी,मगर फिलिस्तीन में रहने की  इजाज़त उन्हें हरगिज़ नहीं दी जाएगी। ......... जारी है ,

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Rizwan Ahmed  

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