door tak chhaye the badal



Rizwan Ahmed (Saif)


दूर तक छाये थे बादल और कहीं साया ना था 

इस तरह बरसात का मौसम कभी आया ना था


सुर्ख आहों पर टपकती बूँद है अब हर ख़ुशी 

ज़िंदगी ने पहले हमको यूं कभी तरसाया ना था 


किया मिला आखिर तुझे सायों के पीछे भाग कर 

ऐ दिल-ए-नादाँ किया तुझे हमने समझाया ना था 


उफ़ ये सन्नाटा के जिसमे आहट तक ना हो ज़रा 

ज़िंदगी में इस क़दर हमने सुकून पाया ना था 


खूब रोये छिप के घर की चार दीवारी में हम 

हाल-ए-दिल कहने के क़ाबिल कोई हमसाया ना था


हो गए गरीब जब से उम्मीद की दौलत लूटी 

पास अपने और तो कोई भी सरमाया ना था


अब खुला झोंको के पीछे चल रही थी आंधियां 

अब जो मंज़र है वो पहले तो नज़र आया ना था 


वो पयम्बर हो के आशिक़ क़त्ल गाह शौक़ में 

ताज काँटों का किसे दुनिया ने पहनाया ना था 


सिर्फ खुशबु की कमी थी मौसम-ए-गुल में क़तील 

वरना गुलशन में कोई भी फूल मुरझाया ना रहा,

क़तील शफाई:





   

  

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