तेरे क़रीब आ के बड़ी उलझनों में हूं - अहमद फ़राज़
Rizwan Ahmed 06-Jan-2021
तेरे क़रीब आ के बड़ी उलझनों में हूं
मुझ से गुरेज़-पा है तो हर रास्ता बदल
मैं संग-ए-राह हूं तो सभी रास्तों में हूं
तू आ चुका है सत्ह पे कब से ख़बर नहीं
बेदर्द मैं अभी उन्हीं गहराइयों में हूं
ऐ यार-ए-ख़ुश-दयार तुझे क्या ख़बर कि मैं
कब से उदासियों के घने जंगलों में हूं
तू लूट कर भी अहल-ए-तमन्ना को ख़ुश नहीं
याँ लुट के भी वफ़ा के इन्ही क़ाफ़िलों में हू
बदला न मेरे बाद भी मौज़ू-ए-गुफ़्तुगू
मैं जा चुका हूं फिर भी तिरी महफ़िलों में हूं
मुझ से बिछड़ के तू भी तो रोएगा उम्र भर
ये सोच ले कि मैं भी तिरी ख़्वाहिशों में हूं
तू हंस रहा है मुझ पे मिरा हाल देख कर
और फिर भी मैं शरीक तिरे क़हक़हों में हूं
ख़ुद ही मिसाल-ए-लाला-ए-सेहरा लहू लहू
और ख़ुद 'फ़राज़' अपने तमाशाइयों म
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