मेरा राज़ या तो अल्लाह जनता था तुम जानते थे या फिर सिर्फ मै जनता था, मुझे मालुम है ये तुम जान बूझ कर करके गए तुम इसलिए कर के गए हो ये सब ताकि मेरा राज़ दुनिया के सामने आ जाये और रोते रोते बोले लोगों सफें सीधी करो मै नमाज़-ए-जनाज़ा पढ़ाऊंगा मुझमें ये तीनो शर्ते मौजूद हैं,
हज़रत क़ुतबुद्दीन बख्तियार रहमतुल्लाह अलै (काकी) के से नाम बहुत सारे लोग वाकिफ होंगे खासकर मुसलमान तो ज़रूर वाकिफ होंगे दिल्ली के अंदर महरोली में उनका मज़ार है,
Rizwan Ahmed (Saif)
लेकिन आज जो मै वाकिया आप सब दोस्तों की खिदमत में लेकर हाज़िर हुवा हूँ वो वाकिया क़ुतबुद्दीन बख्तियार रहमतुल्लाह अलै (काकी) का नहीं किसी और का है लेकिन आप का इस वाकिया से उतना ही ताल्लुक है जितना किसी भी दरख्त का ज़मीन से होता है आपके बगैर ये वाकिया पेश ही नहीं आना था,
मै आपका दोस्त रिज़वान अहमद R Entertainment में आपका इस्तक़बाल (स्वागत) करता हूँ
वाकिया कुछ इस तरह है हज़रत क़ुतबुद्दीन बख्तियार रहमतुल्लाह अलै (काकी) अपने इंतक़ाल के वक़्त के लिए एक वसीयत की हुई थी जो उनके इंतक़ाल के बाद उनके जनाज़े पर पढ़ी गई,
वसीयत कुछ इस तरह से थी के मेरे जनाज़े की नमाज़ वो आदमी पढ़ायेगा जिसके अंदर चार खूबियां पाई जाएँ चार शर्तें पाई जाएँ,
पहली शर्त थी के मेरी नमाज़े-ए-जनाज़ा वो आदमी पढ़ाये जो जबसे बालिग हुवा हो उसकी फ़र्ज़ नमाज़ तो किया तक्बीरे ऊला भी कभी ना छूटी हो तक्बीरे ऊला मतलब हर हाल में जमात के खड़े होने से पहले जमात में शामिल होना है,
दूसरी शर्त ये थी दिन से वो जब से बालिग़ हुवा हो उस दिन आज तक यानी मेरे नमाज़े जनाज़ा पढ़ाने तक उसकी कभी तहाज्जुद की नमाज़ ना छूटी हो,
तीसरी शर्त ये थी के वो इंसान जो मेरी नमाज़-ए-जनाज़ा पढ़ायेगा जब से वो बालिग़ हुवा है तब से लेकर आजतक उसकी असर की चार सुन्नतें ना फौत हुई हों, असर की चार सुन्नतें जो आज लगभग 95 % लोग छोड़ ही देते होंगे सिवाए रामज़ानों के दिनों के मैं भी उन्ही लोगों में से एक हूँ जो असर की चार सुन्नतें नहीं पढ़ पाता
चौथी शर्त ये थी असल में यही सबसे खतरनाक शर्त थी जिसको सुन सुन कर बड़े हाफ़िज़-ए-क़ुरान बड़े बड़े आलिम क़ारी वली पीछे हट जाते थे क्योंकि ऊपर वाली तीनों शर्ते तो माशा अल्लाह आज के वक़्त में बहुत से लोगों में मिल जाएँगी और उस ज़माने में तो वैसे भी दीन पर अमल करने वाले बहुत लोग होते थे और दूसरी बात वली हो और उसमें ये ऊपर वाली तीनों शर्ते ना हों तो वो वली किस बात का,
और सबसे ज्यादा अहम् बात ये है के जब हज़रत क़ुतबुद्दीन बख्तियार रहमतुल्लाह अलै (काकी) का इंतक़ाल हुवा था उस वक़्त उनके जनाज़े में लाखों लोग शामिल हुवे थे जिसमे कम से कम पंद्रह हज़ार तो हदीस की किताबें लिखने वाले थे काम से काम पचास हज़ार कारी थे अस्सी हज़ार नादिरा क़ुरान पढ़ने वाले लोग थे मगर जब इन सबने तीसरी शर्त सुनी तो किसी के क़दम जनाज़े की नमाज़ पढाने के लिए ना उठे,
वो तीसरी शर्त थी के जब से वो इंसान जो मेरे जनाज़े की नमाज़ पढ़ायेगा उसने अपनी माँ बहनों बेटियों बीवी यानी जो इसके घरेलु रिश्तें हैं उनके अलावा किसी गैर औरत की शक्ल ना देखी हो कभी,
ये थी सबसे तगड़ी शर्त इस शर्त को सुनने के बाद किसी की भी नमाज़-ए-जनाज़ा पढ़ाने की हिम्मत ना होती थी असर की नमाज़ का वक़्त हुवा तो एक आदमी जिसने अपना मुँह कपडे से ढंका हुवा था भीड़ से बहार निकला जनाज़े के पास आया और दहाड़े मार मार कर रोने लगा कहने लगा ओ क़ुतबुद्दीन तुम्हे किया मिला जो मेरा राज़ दुनिया के सामने फाश करके चले गए,
मेरा राज़ या तो अल्लाह जनता था तुम जानते थे या फिर सिर्फ मै जनता था, मुझे मालुम है ये तुम जान बूझ कर करके गए तुम इसलिए कर के गए हो ये सब ताकि मेरा राज़ दुनिया के सामने आ जाये और रोते रोते बोले लोगों सफें सीधी करो मै नमाज़-ए-जनाज़ा पढ़ाऊंगा मुझमें ये सारी शर्ते मौजूद हैं,
अब आपके मन में ख्याल आरहा होगा के वो कोई मुफ़्ती होगा क़ारी होगा कोई बहुत बड़ा आलिम होगा किसी मस्जिद का इमाम होगा वगैरा वगैरा,
दोस्तों वो इन सब में से कोई नहीं थे वो थे उस वक़्त के दिल्ली के बादशाह ख्वाजा शमसुद्दीन अलतमस थे जी हाँ दोस्तों हिंदुस्तानी मुस्लिम बादशाहों के इतिहास में कई ऐसे अल्लाह वाले बादशाह गुज़रे हैं जो अपने दौर के वली भी रह चुके हैं जिनमे से एक ये शमसुद्दीन अल्तमश थे
और आज की मीडिया ऐसे मुस्लिम बादशाहों को क्रूर और तानाशाह कह कर लोगों में झूंठ फैलाती है
शुक्रिया...
नोट:मैं चाहता हूँ आगे भी इसी तरह लिखता जाऊं इसके लिए मुझे आप सब की सपोर्ट चाहिए तीन सालों से इस वेबसाइट को चला रहा हूँ बहुत पैसा खर्च कर चूका हूँ आप लोग मुझे सपोर्ट करें
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