wo meri aankh ka tara thi
Rizwan Ahmed (Saif)
वो अक्स थी मस्त बहारों का
वो रंग थी शोख नज़ारों का
वो नूर थी चाँद सितारों का
वो मेरी आँख का तारा थी
मैं जान से उसको प्यारा था
वो लय थी मेरे गीतों की
वो शोला थी या शबनम थी
कुछ पागल सी कुछ गुमसुम सी
मुस्कान थी मेरे होठों की
जब राह में मुझको मिल जाती
वो शर्म से आँख झुका देती
फिर हाथ हवा में लहरा कर
वो चाँद को भी गहना देती
एक रोज मिली इस हाल में वो
ना आँख में उसके शोखी थी
ना बातों में गहराई थी
कभी हंसती थी कभी रोती थी
ग़मगीन मुझे वो लगती थी
मामूल से हट के उसकी हंसी
कुछ बोल ना पाती थी लेकिन
एक कागज़ उसके हाथ में था
ऐ जान मेरी खुदा हाफिज
ऐ जान तुझे रब राखा ,
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