Rizwan Ahmed (Saif)
तेरे इर्द गिर्द बहुत शोर था मेरी बात बीच में रह गई
ना मैं कह सका ना तू सुन सका मेरी बात बीच में रह गई
मेरे दिल में दर्द सा भर गया मुझे बे यक़ीन सा कर गया
तेरा बात बात पे टोकना मेरी बात बीच में रह गई
तेरे शहर में मेरे हमसफ़र वो दुखों की एक भीड़ थी
मुझे रास्ता नहीं मिल सका मेरी बात बीच में रह गई
वो जो ज़िम्मेदारियाँ थी मेरे सामने वो उलझने थी दिमाग़ की
मैं उन्ही में उलझ के रह गया मेरी बात बीच में रह गई
अजब एक चुप सी लगी मुझे उससे एक पल के हिसार में
हुवा जिस घड़ी तेरा सामना मेरी बात बीच में रह गई
कहीं बे किनारे थी ख्वाहिशें कहीं बेशुमार थी उलझने
कहीं आसुओं का हुजूम था मेरी बात बीच में रह गई
था जो शोर मेरी सदाओं का मेरी आधी रात की दुआओं का
हुवा शामिल जो मेरा खुदा मेरी बात बीच में रह गई
मेरी ज़िंदगी में जो लोग थे मेरे आसपास से उठ गए
मैं तो रह गया उन्हें रोकता मेरी बात बीच में रह गई
तेरी बेरुखी के हिसार में ग़म-ए-ज़िंदगी के फशार में
मेरा सारा वक़्त निकल गया मेरी बात बीच में रह गई
मुझे वहाम था तेरे सामने नहीं खुल सकेगी ज़बां मेरी
सो हक़ीक़तन भी वही मेरी बात बीच में रह गई
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