Tahzeeb wali auraten

 वो कैसी औरतें थीं...

Rizwan Ahmed 29-07-21


जो गीली लकड़ियों को फूंक कर चूल्हा जलाती थीं

जो सिल पर सुर्ख़ मिर्चें पीस कर सालन पकाती थीं



सुबह से शाम तक मसरूफ़, लेकिन मुस्कुराती थीं

भरी दोपहर में सर अपना ढक कर मिलने आती थीं


जो दरवाज़े पे रुक कर देर तक रस्में निभाती थीं

पलंगों पर नफ़ासत से दरी-चादर बिछाती थीं


बसद इसरार मेहमानों को सिरहाने बिठाती थीं 

अगर गर्मी ज़्यादा हो तो रुहआफ्ज़ा पिलाती थीं


जो अपनी बेटियों को स्वेटर बुनना सिखाती थीं 

जो "क़लमे" काढ़ कर लकड़ी के फ्रेमों में सजाती थीं


दुआएं फूंक कर बच्चों को बिस्तर पर सुलाती थीं

अपनी जा-नमाज़ें मोड़ कर तकिया लगाती थीं


कोई साईल जो दस्तक दे, उसे खाना खिलाती थीं

पड़ोसन मांग ले कुछ तो बा-ख़ुशी देती-दिलाती थीं


जो रिश्तों को बरतने के कई गुर सिखाती थीं

मुहल्ले में कोई मर जाए तो आँसू बहाती थीं


कोई बीमार पड़ जाए तो उसके पास जाती थीं 

कोई त्योहार पड़ जाए तो ख़ूब मिलजुल कर मनाती थीं


वह क्या दिन थे किसी भी दोस्त के हम घर जो जाते थे

तो उसकी माँ उसे जो देतीं वह हमको खिलाती थीं


मुहल्ले में किसी के घर अगर शादी की महफ़िल हो

तो उसके घर के मेहमानों को अपने घर सुलाती थीं


मैं जब गांव अपने जाता हूँ तो फ़ुर्सत के ज़मानों में 

उन्हें ही ढूंढता फिरता हूं, गलियों और मकानों में


मगर अपना ज़माना साथ लेकर खो गईं हैं वो 

किसी एक क़ब्र में सारी की सारी सो गईं हैं वो.😥

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